ये नज़्म ऐसा लगता है जैसे जावेद साहब ने मेरे लिए ही लिखी है। जावेद साहब ने कमाल के नगमे लिखे हैं और साथ ही नज्मे भी। जिनके पसंद न आने का तो सवाल ही नहीं उठता। आपको भी ज़रूर पसंद आएगी और मुमकिन है के आपको भी लगे ये आपके लिए ही लिखी गयी है।
मैं भूल जाऊं तुम्हे
अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं
के तुम तो फिर भी हकीक़त हो
कोई ख्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ
कमबख्त!
भुला न पाया ये वो सिलसिला
जो था ही नहीं
वो एक ख्याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुमसे
वो एक रब्त
जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं.