काली रात के अँधेरे सन्नाटे में
दूर तलक सुनसान सड़क पर
तन्हा निकलती है सोच कोई
रोती भी नहीं , हंसती भी नहीं
टीन के ख़ाली डिब्बे को
ठोकर मारकर दूर ढकेलती
नुक्कड़ के एक ख़ाली कोने में
एक याद से जाकर मिलती है
शब्-ओ-रोज़ मिला करते थे यहीं
आज है वो कहाँ और हम कहाँ
सोच ने देखा वापस आकर
अरे! हम तो हैं यहीं, मगर तन्हा.....