Monday, June 28, 2010

सोच


काली रात के अँधेरे सन्नाटे में

दूर तलक सुनसान सड़क पर

तन्हा निकलती है सोच कोई

रोती भी नहीं , हंसती भी नहीं

टीन के ख़ाली डिब्बे को

ठोकर मारकर दूर ढकेलती



नुक्कड़ के एक ख़ाली कोने में

एक याद से जाकर मिलती है

शब्-ओ-रोज़ मिला करते थे यहीं

आज है वो कहाँ और हम कहाँ

सोच ने देखा वापस आकर

अरे! हम तो हैं यहीं, मगर तन्हा.....