Tuesday, June 29, 2010

नज़्म उलझी हुई है



नज़्म उलझी हुई है सीने में

मिसरे अटके हुए हैं होंटों पर

उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह

लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं

कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम

सादे कागज़ पे लिख के नाम तेरा


बस तेरा नाम ही मुकम्मल है

इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी।