मेरी पसंद की कुछ नज्मों में से एक है जावेद साहब की ये नज़्म। उम्मीद है के आपको भी पसंद आएगी .......................
मेरा आँगन
कितना कुशादा कितना बड़ा था
जिसमे
मेरे सारे खेल
समां जाते थे
और आँगन के आगे था वो पेड़
के जो मुझसे काफी ऊंचा था
लेकिन
मुझको इसका य़की था
जब मैं बड़ा हो जाऊंगा
इस पेड़ की फुनगी भी छु लूँगा
बरसों बाद
मैं घर लौटा हूँ
देख रहा हूँ
ये आँगन
कितना छोटा है
पेड़ मगर पहले से भी थोडा ऊंचा है.