Tuesday, June 29, 2010

ग़ज़ल



परवीन शाकिर की एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल आप सब के लिए..........





पा-बा-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन

दस्त-बस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन।

मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले

कर रहा है मेरे फर्द-इ-जुर्म की तहरीर कौन।

आज दरवाजों पे दस्तक जानी पहचानी सी है

आज मेरे नाम लाता है मेरी ताज़ीर कौन।

नींद जब ख्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अहद में

ख़्वाब देखे कौन और ख्वाबों को दे ताबीर कौन।

रेत अभी पिछले मकानों की न वापस आई थी

फिर लब-इ-साहिल घरौंदा कर गया तामीर कौन।

सारे रिश्ते हिज्रतों में साथ देते है तो फिर

शहर से जाते हुए होता है दामन_गीर कौन।

मेरी चादर तो छीनी थी शाम की तनहाई ने

बेरिदाई को मेरी फिर दे गया तशहीर कौन।

दुश्मनो के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद है

देखना है खेंचता है मुझ पे पहला तीर कौन।