Thursday, July 1, 2010

मुअम्मा



हम दोनों जो हर्फ़ थे

हम एक रोज़ मिले

एक लफ्ज़ बना

और हमने एक माने पाए

फिर जाने क्या हम पर गुजरी

और अब यूँ है

तुम एक हर्फ़ हो

एक खाने में

मैं एक हर्फ़ हूँ

एक खाने में

बीच में

कितने लम्हों के खाने खाली हैं

फिर से कोई लफ्ज़ बने

और हम दोनों एक माने पायें

ऐसा हो सकता है

लेकिन

सोचना होगा

इन खाली खानों में हमको भरना क्या है।
-----:> जावेद अख्तर