बीते दिनों की बात है मेरे घर से अगली गली में रहने वाले एक बुज़ुर्ग का इन्तेकाल हो गया। पाँचों वक़्त की नमाज़ के पाबंद और बा-शरे इन्सान थे। मैंने तो उन्हें कभी किसी से लड़ते नहीं देखा। लेकिन थे बड़े दबंग। किसी की गलत बात को न मानने वाले और हक बात कहने वाले। जब उनके विसाल की खबर सुनी तो यकायक यकीन ही नहीं हुआ। पता चला की असर और मगरिब के दरमियाँ उनकी रूह कफसे उन्सरी से परवाज़ कर गयी। ईशा की नमाज़ के बाद मेरे साथ गली के २-१ लोग उनके घर पहुंचे . वहां काफी लोग मौजूद थे. उनके बड़े लड़के के पास खड़े हम उसे तसल्ली दे ही रहे थे कि हमसे कुछ दूरी पर उनके एक रिश्तेदार की मोटर साइकिल आकर रुकी। मोबाइल पर ज़ोरदार तरीके से बात करते हुए आये. पीछे से बुर्का पहने एक मोहतरमा उतरीं। चेहरा खुला हुआ था. मेरी समझ में नहीं आता कि जब चेहरा खोलना ही है तो बुर्का पहनने की ज़रूरत ही क्या है। खैर, मोटर साइकिल से उतरीं और बेहद ही बेहूदा अंदाज़ में मुस्कुराती हुई उनके बेटे को सलाम करती हुई आगे बढ़ गयीं। फिर घर के दरवाज़े पर पहुँच कर पर्दा हटा कर अन्दर मौजूद औरतों पर एक नज़र डाली, जोकि पूरे घर में दरवाज़े तक भरी हुई थीं। दो-एक को देखकर जो ज़हरीली ख़ुशी उनके चेहरे पर फैली उसे देखकर तो मैं हैरान रह गया। जैसे उनकी ऑंखें कह रही हों-"अरे! तुम भी मौजूद हो यहाँ, फिर तो मज़ा आ गया। अब तो खूब बातें होंगी। " ऐसा लगा ही नहीं जैसे किसी मौत के घर में दाखिल हो रही हों। यह लग रहा था जैसे किसी प्रोग्राम में तशरीफ़ लायी हैं. इसके बाद मैं वहां से चला तो आया, पर सारे रास्ते यही सोचता रहा कि आज आदमी ही नहीं औरतें भी उतनी ही संवेदन शून्य हो गयी हैं।